एपिसोड 23: कोबरापोस्ट, राना अयूब को धमकी, प्रणब मुखर्जी का नागपुर गमन व अन्य

कोबरापोस्ट का ऑपरेशन-136, पत्रकार रवीश कुमार और राना अयूब को दी जा रही जान से मारने की धमकी, टाइम्स नाउ द्वारा तरुण तेजपाल मामले के सीसीटीवी फुटेज जारी करना और प्रणब मुखर्जी का आरएसएस के मुख्यालय नागपुर में स्वयंसेवकों को संबोधित करने का फैसला इस बार की चर्चा के मुख्य विषय रहे.वरिष्ठ पत्रकार और इंडिया टीवी के पूर्व संपादक दिलीप मंडल और वरिष्ठ टेलीविज़न पत्रकार प्रशांत टंडन इस बार की चर्चा के विशेष मेहमान रहे. कार्यक्रम का संचालन न्यूज़लॉन्ड्री के कार्यकारी संपादक अतुल चौरसिया ने किया.दिलीप मंडल ने एक दिलचस्प उदाहरण से कोबरापोस्ट के स्टिंग ऑपरेशन-136 को समझाया. उन्होंने कहा, “ऐसा मानिए कि रामलीला हो रही है. लोग भक्ति भाव से राम, सीता हनुमान आदि पात्रों को मंच पर देख रहे हैं. इस बीच अचानक से कोई दर्शक मंच के पीछे पांडाल में चला जाय. संभव है कि वहां लक्ष्मण बना पात्र सिगरेट पी रहा हो. हो सकता है कि राम वहां आयोजकों से अपने भुगतान के लिए लड़ रहा हो. कोबरापोस्ट ने जो दिखाया है, वह परदे के पीछे लंबे समय से होता आ रहा है. अब यह कैमरे के जरिए सामने आ गया है.”वो आगे कहते है, “विश्वसनीयता मीडिया में एक प्रोडक्ट है. तो अगर उस प्रोडक्ट की विश्वसनीयता घटती है तो मीडिया के लिए निश्चित रूप से संकट का काल है. यहां मीडिया लिटरेसी का भी मसला आता है. हमारा देश में मीडिया लिटरेसी बहुत कम है. इसके बनिस्बत पश्चिम में लोगों में मीडिया लिटरेसी एक हद तक आ चुकी है. लोगों को पता है कि सीएनएन डेमोक्रेट्स के साथ है और फॉक्स पब्लिकन के साथ जाएगा. दोनों ही इस बात को छुपाते नहीं हैं. लोग भी दोनों की ख़बरों को उसी संदर्भ में लेते हैं. इसके बनिस्बत आप यहां 20 पन्ने कुछ भी लिखकर छाप दीजिए. आम लोगों में इस बात की समझ नहीं है कि यह क्यों या कहां से आ रहा है.”प्रशांत टंडन ने इस बहस के एक अन्य पहलू की ओर ध्यान खींचा. उन्होंने कहा, “पुष्प शर्मा आचार्य अटल के रूप में जिन तीन चरणों की बात कर रहे थे, यहां मीडिया में वह प्रोजेक्ट पहले से ही चल रहा है, बल्कि वह अपने दूसरे और तीसरे चरण में है. यहां महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या हिंदुत्व के अलावा कोई और स्क्रिप्ट भी चल सकती थी?”प्रशांत आगे कहते हैं, “मान लीजिए पुष्प शर्मा ये कहते कि वे पहले चरण में देश के महापुरुषों में स्थापित करने के लिए वे महात्मा फूले और आंबेडकर के पक्ष में अभियान चलाना चाहते हैं. दूसरे चरण में हम आरक्षण के सवाल पर, उसकी जरूरत पर लोगों को जागरूक करेंगे, आरक्षण विरोधियों को उजागर करेंगे और फिर तीसरे चरण में मनुवाद के खिलाफ लोगों का ध्रुवीकरण करेंगे. क्या तब लोग 500 करोड़ या 1000 करोड़ के बदले यह स्क्रिप्ट खरीदते? ऐसा नहीं है कि एंकर और संपादक किसी कारपोरेट दबाव के चलते ऐसा कर रहे हैं. इसके पीछे अहम वजह मीडिया न्यूज़रूम की संरचना है. कुछ साल पहले मीडिया स्टडीज़ ग्रुप ने एक सर्वे जारी किया था. उसमें मीडिया के फैसला करने वाली जगहों पर 75 फीसदी से ज्यादा हिंदू, सवर्ण और पुरुष पाए गए.”इस स्टिंग ऑपरेशन का एक और पहलू सामने आया जब कुछ बड़े पत्रकारों ने स्टिंग ऑपरेशन को पत्रकारिता मानने से ही खारिज कर दिया. इस विषय पर अपनी बात रखते हुए अतुल चौरसिया ने कहा, “जिन पत्रकारों ने स्टिंग ऑपरेशन को पत्रकारिता नहीं माना है उन्होंने अपने संपादकत्व में दिलीप सिंह जुदेव का स्टिंग ऑपरेशन चलाया है. सिर्फ इतना ही नहीं वह स्टिंग ऑपरेशन उनके अपने पत्रकार ने नहीं किया था. टाइम्स ऑफ इंडिया की एक स्टोरी पर भरोसा करें तो जुदेव का स्टिंग कांग्रेस पार्टी का प्लांट था. ऐसे में स्टिंग ऑपरेशन को पत्रकारिता के एक औजार के रूप में खारिज करना दोहरेपन को उजागर करता है.”अतुल ने आगे जोड़ा, “ऐसे मौके आते हैं जब पत्रकारों के पास ख़बर को सामने लाने का कोई और विकल्प ही नहीं बचता. सिर्फ उन्हीं स्थितियों में स्टिंग ऑपरेशन को जायज माना जाना चाहिए.” पैनल के दोनों मेहमान इस राय से सहमत थे. कोई भी स्टिंग को पत्रकारिता के एक औजार के रूप में खारिज नहीं करता.बाकी विषयों पर विस्तार से सुनने के लिए पॉडकास्ट लिंक पर जाएं. See acast.com/privacy for privacy and opt-out information.

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