एक घाट सुहाना अपना था

(अल्लहड़ बनारसी और रमती बंजारन) जिसके (लेखक शरद दुबे) और (वक्ता RJ रविंद्र सिंह) है  !एक घाट सुहाना अपना था चुना जो हमने सपना था हम अक्सर जाया करते थे सपने बुनकर लाया करती थी हर शाम कि यही कहानी थीहर बाते जानी पहचानी थी वो कालेज वाली बाते थी वो आर्ट कैम्पस से आती थी मै साईंस से आ जाता था गेट पर मुलाकात हो जाती थी फिर जिमखाना के चक्कर लगवाती थी फिर घाट घुमाने जाती थी घण्टों फिर वहा बिताती थीघाट पर एक चाय वाला था वो कुछ जाना पहचाना था हर दिन उसकि बात हुई सीढियो पर उससे मुलाकत हुई वो अक्सर हाय आ जाता था बिन मागे चाए पिलाता था वो कालेज वाली बाते रही जो घाटो तक चलकर साथ रही कालेज के दिन अब ना साथ रही अब हमारी उसकि ना मुलाकत रही

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