स्वस्थ रहने की रामबाण दवा-स्वस्थ दिनचर्या
धर्मार्थकाममोक्षानामारोग्यं मूलमुत्तमम्।धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति में श्रेष्ठ मूल कारण शरीर का निरोग होना अनिवार्य है। निरोग शरीर से ही सभी पुरुषार्थ प्राप्त किए जा सकते हैं। किसी भी कार्य में अच्छी सपफलता के लिए अच्छे स्वास्थ्य का होना जरूरी है। इसका मतलब हुआ कि हमारा सर्वोपरि कार्य स्वास्थ्य की देखभाल करना होना चाहिए।गुरु जी स्वस्थ कौन? स्वस्थ को थोड़ा विस्तार से समझाइए?स्व का अर्थ है आत्मा। आत्मा शब्द देह, इन्द्रिय, प्राण, मन, जीवात्मा तथा परमात्मा-इन सबके लिए प्रयोग होता है। जब हम किसी व्याधि से ग्रस्त रहते हैं तो रोगग्रस्त कहलाते हैं, उस समय हम स्वस्थ नहीं रहते। स्वस्थ का अर्थ है नीरोग। स्वस्मिन् तिष्ठतीति स्वस्थः जो अपने आप सुखस्वरूप आत्मा में स्थित रहे वही स्वस्थ कहलाता है।गुरु जी कैसे जानें कि हम स्वस्थ हैं?महर्षि सुश्रुत कहते हैं- समदोषः समाग्निश्च समधतुमलक्रियः। प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ्य इत्यभिधीयते।।1. समदोषः- जिसके वात, पित्त और कफ-ये दोष हों य इनमें विषमता न आ जाय। आवश्यकता से अधिक वायु, पित्त, कफ न बढ़ जाय। यदि एक अधिक कुपित होकर बढ़ जाय तो शेष दो घट जाते हैं, जैसे शरीर में कफ बढ़ जाय तो वात और पित्त घट जायेंगे। इसी प्रकार पित्त बढने पर वात और कफ घट जायेंगे। अतः स्वस्थता के लिए तीनों का सम होना आवश्यक है। तीनों ही दोष कुपित हो जायें तो त्रिदोष हो जाता है, फिर व्यक्ति का बचना संभव नहीं। अतः तीनों दोष सम होने चाहिए।2. समाग्नि-अग्नि भी तीन प्रकार की होती हैं-मदाग्नि, तीव्राग्नि और समाग्नि। एक चैथी हविषाअग्नि भी होती है, उसमें भूख कभी शांत नहीं होती चाहते जितना खाते जाओ। मन्दाग्नि में भूख नहीं लगती, अग्नि मंद पड़ जाती है और तीव्राग्नि में आवश्यकता से अधिक भूख लगती है। अतः अग्नि सम होनी चाहिए।3 समधातु-रस, रक्त, माँस, मज्जा, अस्थि, मेद और शुक्र-ये सात धातु हैं, इनमें से कोई भी आवश्यकता से अधिक बढ़ जाये तो रोग पैदा करेंगे। अधिक क्षीण हो जाय तो भी रोग पैदा करेंगे। अतः धातु भी सम होने चाहिए।4 मल-मलिनीकरणान्मलाः जो शरीर के धातुओं एवं उपधातुओं को मलिन करता है, वह मल कहलाता है। सुश्रुत के अनुसार, दोष-धातु-मल मूलं हि शरीरं यानी के मानव शरीर दोष, धातु और मल के बिना नहीं रह सकता है। शरीर में मल की एक निश्चित मात्रा का होना अनिवार्य है, जो शरीर को धरण करती है। स्वेद (पसीना), मूत्र और पुरीष यानि टट्टी को मल कहा गया है। शरीर में मल का क्षय और वृद्धि दोनों हानिकारक हैं। मल का अध्कि या कम निकलना रोग का पनपना है।5 प्राण-प्राण विशेषकर रक्त में, वीर्य में और मल में रहते हैं-इन तीनों के क्षय का ही नाम राज्यक्षमा है। साथ ही जिसकी इन्द्रियाँ और मन प्रसन्न और स्वस्थ रहें-ऐसे ही प्राणी को स्वस्थ कहते हैं और यही स्वास्थ्य की परिभाषा भी है।उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए जीने की कला का ज्ञान होना आवश्यक है इसके लिए जीवन की युक्ति सीखकर उसके अनुसार आचरण करना जरूरी है। ऐसे ही जीवन को नियमित जीवन कहा जाता है और नियमित जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति ही सच्चा आरोग्य प्राप्त करता है जो बुद्धिमान हैं, वे ऐसा ही जीवन व्यतीत करते हुए संसार में बड़े-बड़े कार्य करने में सफल होते हैं।जीने की कला एक बहुत बड़ा विषय है इसके अनेक अंग-उपांग हैं। आज हम इसके एक अंग ‘दिनचर्या‘ पर थोड़ा सा प्रकाश डालेंगे। संस्कृत में दैनिक कार्यक्रम को दिनचर्या कहते हैं। दिन का अर्थ है दिन का समय और आचार्य का अर्थ है उसका पालन करना या उसके निकट रहना। दिनचर्या आदर्श दैनिक कार्यक्रम है जो प्रकृति के चक्र का ध्यान रखती है। दिनचर्या शरीर और मन का अनुशासन है। दिनचर्या से प्रतिरक्षा तंत्रा मजबूत होता है और मल पदार्थों के निष्कासन से शरीर शुद्ध बनता है। स्वस्थ दिनचर्या से तन और मन शुद्ध एवं स्वस्थ बनते हैं। वात पित्त और कफ त्रिदोष संतुलित होते हैं।प्रातः काल में सरल दिनचर्या का पालन करने से हमारे दिन की शुरुआत आनंदमयी होती है। आपकी सुबह ताजगी, स्फूर्ति और आनंद से भरी हो, तो आइए इसका शुभारंभ हम प्रातः जागरण से करते हैं।आज इतना ही। अगले बुलेटिन में हम प्रभात जागरण के साथ फिर मिलेंगे। धन्यवाद।